राज्य बाल अधिकार आयोग की अध्यक्ष आरती कुजूर ने कहा की मैं मानती हूँ कि आरटीई का पालन नहीं हो रहा है। आरटीई कहना तो आसान है लेकिन इसे अंतिम व्यक्ति तक ले जाना चुनौती है। आज इतनी जागरूकता आने के बाद भी बच्चे लोगों के घरों, ईंट- भठ्ठों, दुकानों और होटलों में काम करते देखे जाते हैं, इतना ही नहीं " कचड़ा और भीख" ये ऐसे समस्या हैं जो हमें हमारी कमियों का एहसास कराती हैं। 0- 6 उम्र के बच्चे को पोषण वर्ष 06-14 उम्र के बच्चों के लिए राईट टू एजुकेशन। लेकिन वर्ष 14 से 18 तक की जो खाली है उसे भरना चाहिए। सोचने का विषय है। श्रीमति कुजूर ने सरकारी योजनाओं की गिनती सराहना करते हुए कमियों पर भी प्रकाश डाला।
इधर सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के प्रो. बी. पी. सिन्हा ने अपने सम्बोधन में कहा कि आज स्कूल (शिक्षा) का वर्गीकरण हो गया है। शिक्षा पूरी तरह व्यवसाय हो चूका है। राइट टू एजुकेशन बकवास है। जहाँ बच्चे को राईट टू फ़ूड में कीड़े- मकोड़े, छिपकिली मिल जाते हैं। स्कूल में शिक्षकों से अधिकाधिक काम लिए जाते हैं। बच्चों को पढ़ाने का समय नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में राईट टू एजुकेशन की बात बईमानी लगती है। उस समय तक इस पर काबू नहीं पाया जा सकता, जब तक सामाजिक, राजनेतिक, शैक्षणिक स्तर पर क्रांति नहीं आती। हमें तो अपने झारखण्ड के शहीदों, क्रांतिकारियों की भी जानकारी नहीं है। ऐसे में शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की जरुरत है। सिलेबस में भी बदलाव की जरुरत है। आज राइट टू फ़ूड, एजुकेशन बस भाषण देने, सुनने और अख़बारों के पन्नें पर ही अच्छे लगते हैं। संस्कृत भाषण पर किसी एक वर्ण- जाति ने वर्चस्व नहीं बनाया होता तो आज संस्कृत भी देश की मातृ भाषा होती। वर्ण, जात, धर्म और संप्रदाय ने वर्गीकरण और वर्चस्व से भाषाओं का पतन कर दिया है।
मौके पर एनएचआरसीसीबी के झारखण्ड महिला सचिव ज्योति कुमारी, बंटी साहू, गिरीश चंद्रा, प्रवीण रॉय, सिकंदर वर्मा, नरेंद्र शर्मा, नीतीश कुमार, रोहित राज, दिवाकर श्रीवास्तव सहित झारखंड, बिहार, बंगाल और दिल्ली के सैकड़ों कार्यकर्ता उपस्थित थे।
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